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Friday, October 6, 2023

                                            कृष्णम वंदे जगत गुरु


An AI powered Bot trained with wisdom of Geeta to answer your questions on Geeta and life in accordance with teaching of Krishan





Monday, August 29, 2022

Oh My Mind Just be Free

  Bondage of body is visibile , whats visible gets noticed , whats noticeable gets actioned but bondage of mind is not visible , its even more difficult to identify and recognise these bondage of mind and even more difficult to free the mind from any and all bondage  on the other side these keep creating long term impact at physical level also so lets focus on the journey within

 

 

Sow a small seed  of resilience , nurture it  to be a Banyan tree

With deep rooted inner peace , Oh my mind just be free

 

 

Bondage may have the body , you don’t give in to insecurities

Keep climbing ladder of mindfulness , Oh my mind just be free

 

 

Past is gone and future is yonder , Its in present you need  to be

Rising above time and space , Oh my mind just be free

 

 

Love and compassion is your nature , Let go thought Me

Learn to forget and forgive , Oh my mind just be free

 

 

 

Fruit of Karma multiplies , Perform your actions and be happy

You are master of what you can be , Oh my mind just be free

 

 

Beyond duality of inside and outside, Achive the ultimate Unity

Equanimous in pleasure and pain , Oh my mind just be free.

 

 

This cycle of life is a journey on rising and falling tides of Sea

Follow the compass and find THE purpose , Oh my mind just be free.



Thursday, November 9, 2017

ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
में बच भी जाता तो मरने वाला था

                  -- राहत इंदौरी

चारो तरफ अंधकार है
झाड़ है झंखाड़ है

गड्डा है समतल है
कीचड या दलदल है

मिटटी के टीले है
पत्थर काले नीले है

चमगाड़ो का झुंड है
बिखरे यहाँ नर मुंड है

आम या खास , सभी का घर है
ये मौत का शहर है

एक अचल ठहराव है
आसमान की तरफ झुकाव है

स्याह अँधेरी रात है
बस सन्नाटो की बात है

हादसों की डगर है
मंजिल नहीं सफर है

यह पहुँचते लगी उम्र भर है
ये मौत का शहर है

बुद्धा का ये शोध है
अटल सत्य का बोध है

पांच तत्वो का मिलन है
भय और शोक का हनन है

अविरल गति से विराम है
अंत नहीं बस कुछ आराम है

यही गीता का आधार है
नए जीवन या मुक्ति का द्वार है

दो जहा के बीच न इधर न उधर है
ये मौत का शहर है !!!
 

Monday, June 30, 2014

Antim Charan

मुख पे उदासी नम ये नयन है
वेदना से व्यथित आज मन है

अंतिम चरण है ये अंतिम चरण है

पग पादुका शीश मुकुट विहीन है
ना आज सुरीली मुरली की धुन है
अकेले है नीरव निर्जन वन में
न ये यमुना तट न वृन्दावन है

अंतिम चरण है ये अंतिम चरण है

रहते थे जो साये के जैसे
मैया न बाबा न मित्र परिजन है
छोड़ा महल , राज , राजधानी
सूनी सी द्वारका सूना जीवन है

अंतिम चरण है ये अंतिम चरण है

नन्द और यशोदा का दुलारा
जो वृज के  वन का चन्दन है
न आज साथ ग्वाल बाल गौ धन
न प्यारी राधा न गोप गोपन है

अंतिम चरण है ये अंतिम चरण है

जिस तीर से लिए बाली के प्राण
अब मालूम होती उसकी चुभन है
धर्म रक्षा को विनाशा जिस कुल को
उसी गांधारी के शापित वचन है

अंतिम चरण है ये अंतिम चरण है 

Thursday, December 13, 2012

Atharv

तुम जो धीरे धीरे मुस्कराते हो
कुछ अनबूझे शब्द सुनाते हो
समझ गयो हो बात इशारों की
या फिर मुझको कुछ समझाते हो

किलकारियों से कभी माँ को बुलाया
कभी मचल कर ध्यान बंटाया
फिर की शरारत कोई सपने में
तभी तो सोये सोये भी झिझक जाते हो

दुबक गए गोद में भूल कर दुनिया
नजर बचा कर अंगूठा चूस लिया
नींद  से भरी ये   अधखुली आँखे
इन अदाओं से किसको बहलाते हो

चलो   तुम्हे थोडा झूला झुला दू
आओ बाहर  चंदा मामा से मिला दू
माथे पे लगा  लो काजल का टीका
खुद ही अपनी मसुम्यीत को नजर लगाते हो






Thursday, July 12, 2012

Bhishm !

जैसे देवेन्द्र असुर संग्राम  में
ऐरावत पे हो शोभित
वैसे ही घुमते गंगापुत्र
कुरुक्षेत्र में कर सबको मोहित


ज्यू नाग करने मणि की रखवाली
त्यु कौरव सेना से रक्षित
अनगिनत रथ , घोड़े हाथी
सवार और पैदल से सज्जित

अग्निकुंड के जैसा प्रज्वल
ज्वाला चाप और बाण चिंगारी
गदा , कतार भाला .
ले हाथ में शक्ति भारी

दावानल हो पूर्ण प्रचंड
आज शत्रु को भस्म कर जाए
जिधर घूमे उधर भय
रक्त और मुंड ही नजर आय

टूटे रथ , कटे बाण
भिददा कवच और गिरी ध्वजा
निष्प्राण हो गिर पड़ा
जो भीष्म के सामने पड़ा

एक क्षण इधर तो पल उधर
उल्का की जैसे गति पायी
टिक न सका रन में कोई
आज सबने मुह की खाई

थम गए वासुदेव देख
अद्भुत ये समर भयंकर
खीची रथ की लगाम
बोले सुनो हे पार्थ धनुर्धर

ये देखो कौरव सेनापति
स्वयं काल का स्वरुप है
अर्जुन उठो और युद्ध करो
भीष्म से जो यम का प्रतिरूप है

अभिमन्यु , युधिस्टर , भीम , नकुल
सहदेव सब करते प्रयास
रथी  भागते हो तितर बितर
नहीं जान बचने की आस

हे पुरुष सिंह हो मोह मूक्त
आज भीषण युद्ध करो
मै नारायण सारथि तुम्हारा
होनी से तुम न डरो


धनञ्जय क्या भूल गए विराट
जहा तुमने भीष्म पे विजय पाई
उसी वीरता को दोहराने की
शुभ घडी लो आज फिर आयी

वध करू  अवध्य पितामह का
ये कैसी आज परीक्षा है
इस से अच्छा है वनवास
नहीं  इस अभागे राज्य की इच्छा है

जो आपकी है आगया केशव
उसका उल्लंघन भी नहीं हो सकता
ले चलिए रथ समर मध्य
कहा कुरु सेनापति लड़ता

गांडीव पर चड़ी प्रत्यंचा
अर्जुन ने भीष्म को ललकारा
एक बाण से काटा धनुष
दूजे से रजत कवच भेद डाला

ले नया धनुष फिर हाथ
भीष्म ने बानो का जाल बुना
साध निशाना अर्जुन को ही नहीं
कृष्ण को भी लक्ष्य चुना

भीष्म के बानो की आंधी
जब छा  चुकी कोना कोना
अर्जुन के हाथ में गांडीव
तब लगने लगा खिलौना

देख अर्जुन के विफल प्रयास
कृष्ण हुए कुछ निराश
क्रोधित हो कूड़े धरा पे
छोड़ हाथ से घोड़ो की रास

पीताम्बर धारी ने आज
एक और अनोखा रूप दिखाया
टूटे रथ के चाक को
सुदर्शन चक्र सा सजाया

बरसते आखों से अंगारे
मानो  प्रलय की शुरुआत
ललकार भीष्म को बोले कृष्ण
कर दूंगा युद्ध का अंत आज

छोड़ रथ , अस्त्र और शस्त्र
खुद भीष्म  आ खड़े सामने
देख सुदर्शन धारी को
लगे वीरगति का वर मांन्गाने

हे गोविन्द मृत्यु तुम्हारे हाथ
मोक्ष का अखंड प्रसाद है
तुम्हारे चरणों को पाकर
फिर न जीवन मरन का अवसाद है


प्रभू मुझे अब मुक्त करो
लो मै  स्वयं उपस्थित
त्वदीयं वस्तु गोविन्दम
तुभ्य मेव समर्पित

अर्जुन भी छोड़ रथ को
चरणों में जा गिरा
टूट गया है मेरा मोह
देव मुझे करे क्षमा

शस्त्र न उठाने की
गीताकार आपकी प्रतिज्ञा है
भीष्म को करूँगा प्राण मुक्त
शिरोधार्य आपकी आग्या है

फिर रथ पे चला सारथि
ले होठों पे तिरछी मुस्कान
देख आज ये भीस्म प्रतिज्ञा
कुछ विचलित सा था भगवान्

Wednesday, June 27, 2012

Nadi ka rasta

कही पे पहाड़ है
झाड है झंखाड़ है


Isar @ Munich
 
चट्टानें यूँ खडी है
मानो जिद पे अडी है
गड्डा है समतल है
कीचड या दलदल है
चढ़ाई और ढलान है
खेत है बगान है
रेट के टीले है
पत्थर काले नीले है
जंगल है पेड़ है
जलकुम्भी के ढेर है
गाँव है शहर है
पुल और नहर है
हर आम और खास से वास्ता है
यही तो नदी का रास्ता है

 
थिरकते पांव है
मचलता बहाव है
 सीधा चला फिर मुडा
कट गया और जुड़ा
कही शांत लहर है
और घूमती भंवर है
बांध से जा भिड़ा
किनारों से भी लड़ा
कभी अचल ठहराव है
फिर दरिया की तरफ झुकाव है
 बरसात की बूंदे पिया
जिंदगी का हर पल जिया
मन की मौज पे नाचता है
यही तो नदी का रास्ता है

कृष्ण की रास है
राम का वनवास है
भागीरथी तपस्या है
रामकृष्ण की दिनचर्या है
समुद्र का शोध है
 बुद्ध का बोध है
जीवन का दर्पण है
पितरो का तर्पण है
जनसमुदाय का कुम्भ है
एकांत का दंभ है
निराकार और साकार है
क्रांति का विचार है

प्रकृति की स्वयं पर आस्था है
यही तो नदी का रास्ता है