Wednesday, January 20, 2010

Phir se koi bachpanaa karo yaar

कभी खेल खेल में बाँट लेते थे आसमान
मुस्कुराये हर चेहरे के साथ , अपना या अनजान

थाम लिया हर हाथ बढ़ के किलकारी की साथ
आज फिर क्यूँ तुमने बांध लिए है दोनों हाथ

जिंदगी का खुली बांहों से सामना करो यार
आज फिर से कोई बचपना करो यार


एक पल रूठे तो दूजे ही पल मान जाते
चलते कभी, कभी मासूमियत से लडखडाते

आगे बढ़ फिर मुड़े वापस बेजान खिलौनों के लिए
आज नहीं रुकते ये कदम जिन्दा इंसानो के लिए

पाकर अपनी मंजिल एक बार पीचे मुड़ो यार
आज फिर से कोई बचपना करो यार

सोच ते चाँद है दूध से भरा कटोरा
पकड़ ही लेंगे जो उछल जाए हम थोडा

जब हम सोते है तो कोई परी आती है
तितलियाँ उड़ के इन्द्रधनुष बनाती है

खुली आँखों से तिलस्मी सपने बुनो यार
आज फिर से कोई बचपना करो यार

छोड़ा रोना जब सुनी कोई नयी आवाज
समझा खुद को हर साज का उस्ताद

क्या है भला बुरा ये परवाह क्यों करते
नहीं मिला खाना तो मिटटी से पेट भरते

जरा एक बार अपने दिल की सुनो यार
आज फिर से कोई बचपना करो यार

न थी कोई फिकर जिंदगी खुशनुमा थी
क्यूँ आज सवाल इतने खड़े हो गए
अब सब कुछ लगता है बदला हुया
लगता है हम कुछ ज्यादा बड़े हो गए

भूल के उम्र , काम जरा इतना करो यार
आज फिर से कोई बचपना करो यार

4 comments:

  1. Very good buddy.... Book Publish kyon nahi karte apne collection ki... try pothi.com also contribute at geeta-kavita.com

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  2. Thanks Sid , waiting for you to enter in publishing , My job will be easy then :)

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  3. hey saurabh..this is wonderful!!! excellent! liking it a lot!

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  4. good that you people liked it , some how I am thinking like kids now days :)
    thanks again

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