Tuesday, August 3, 2010

Fir Muskura Do Naa

फिर मुस्कुरा दो ना

जयो चाँद घट के बढ़ जाए

रेत पे सफ़ेद चादर बिछाए

बसंत जब छू ले बाग़ को

किसी कोने में कोयल कूक जाए
हंसी की खनक सुना दो ना

फिर मुस्कुरा दो ना


ताजगी बारिश की फुहारों सी

चमक टिमटिमाते तारो सी

गूंजे ये हंसी कुछ ऐसे

रौनक हो यादो के गलियारों की
बुझे से इस मन को बहला दो ना

फिर मुस्कुरा दो ना


ये ऐसा दिया जो और दिए जलाए

पल भर में बिगड़ी बात बनाए

हटा दे ग़मो का मनहूस साया

ख़ुशी की सुनहरी धुप फैलाये
आँखों की नमी को मिटा दो ना

फिर मुस्कुरा दो ना

4 comments:

  1. lage raho Shuklaji.... try compiling all these in a book...

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  2. khanakte lafzon ki jhadi yoon phir laga do na!

    Bahut accha blog hai.

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