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Saturday, September 19, 2009

untitled

सुबह सुबह दबे पांव कमरे में आती हो
सिरहाने बैठ कर माथा सहलाती हो
कहती जाग सूरज सर चढ़ आया है
आज तेरी पसंद का नाश्ता बनाया है
हर दिन किसी बहाने यु नीद से जगाती हो
जाने कैसे हमेशा मुझ से पहले उठ जाती हो

इस पल घर का हर्र एक कोना संवर लिया
उस पल चली मंदिर जलाने पूजा का दिया
कभी चढ़ छज्जे पे पडोसन को पुकारा
कभी चौखट पे खड़ी गाय को दुलारा
इधर ख़तम तो उधर कुछ शुरू कर देती हो
इतना सब एक साथ कैसे संभल लेती हो

ले आयी जो भी था फ़कीर की पुकार पे
आँगन गूंज जाता पायल की झंकार से
ठहर जाती हो दो पल सब काम छोड़ कर
और देखती हो मुझे जाते हुए उस मोड़ तक
चंद लोगो से ही अपना पूरा संसार बुन लेती हो
क्यूँ इन सब के बीच खुद को भुला देती हो

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