I heard this story many times in various forms , at times sung in folk songs in many of middle Indian parts. Was so fascinated by this one that decided to express in my own words. It was difficult to express the exact emotions so hope to continously improve it .
समय से थोड़ी puraani, ये है एक अलग सी कहानी
तब न थी धरती पे थी आदम बस्ती और न कोई साया इंसानी
कही दूर एक प्यारा जंगल, जिसे ख़ुद वनदेवी ने संवारा था
बहते झरने बड़े सुंदर , कही शांत झीलों का किनारा था
बरगद , पीपल , आम, नीम, न जाने कितने पुराने पहरेदार
कभी ले जाती पतझड़ पीले पत्ते, कभी नई कोपल लाती बहार
आसमानी छत , दीवार झुरमुटो की और मुलायम घांस के बिछोने
कही मांद वनराज की और कही झाडियों में उछलते मृग छोने
वानर वंश की मस्ती एक और दूसरी और मदमस्त हाथी झूमते थे
पोखरो में नन्हे कमल खिले और उधर वट गगन चूमते थे
जंगल के बीच एक पीपल जो की शायद सदियों पुराना था
न जाने कितने नन्हे मुन्हे पंछियों का वो आशियाना था
शिखर के घोसले पर खगराज गरुण निरंतर करता रखवाली
पत्तियों के बीच कोयल फुदकती फिरती इस डाली तो कभी उस डाली
दरारे देती आश्रय शुक को, श्वेत सारस करते यहाँ रैन बसेरा
थी शांत और सहज शाम इसकी और कितना उन्मत्त होता सवेरा
पर शायद इतना सुखमय जीवन किसी की नजर में खटका था
गर्मी की तेज दोपहर में जाने कहा से एक तूफ़ान आ भटका था
टूटे तने पेड़ो के , उठा भंवर धूल का तेज हवा ने की तबाही,
फ़िर चटकी कही सूखी लकड़ी , एक मासूम सी चिंगारी सुलगाई
देखते ही देखते छोटी चिंगारी एक ज्वालामुखी बन आयी थी
घेर लिया समूचे उपवन को , हर तरफ़ लाल मौत छाई थी
भागते वनवासी सब जान बचा कर , और न कोई अब चारा था
छोड़ा घर घरोंदे सारे जिन्हें कितने प्यार से सवार था
आ पहुँची लपटे अग्नि की उस महान पीपल के जड़ो के किनारे
गरुण , कोयल, तोते , सारस उड़ चले पीपल से पंछी सारे
उठ रही जड़ो से ज्वाला , तैयार अब करने को पत्ते डाली राख
पर एक छोटा सा पंछी अभी भी बैठा न छोड़ता पीपल की शाख
पीड़ा अधीर हो पीपल पूंछा उस से झिझोड़ के अपनी डाल
क्या हुआ नन्हे तू क्यों नही उड़ता इस कोलाहाल से बचा अपने प्राण
ये सुन बोला वो भोला , तुम मेरे आश्रय दाता, तुमने दिया जीवन सारा
मधुर फल दिए खाने को , वर्षा , शरद , धुप में दिया सहारा
आज जब आन पड़ी विपदा है , मै तुम्हे न छोड़ कर जाउंगा
नही कायर औरो की तरह जो देख साथी को दुःख में उड़ जाऊँगा
तुम रक्षक मेरे आज जीवन सफल है तुम्हारी रक्षा करने में
मरना ही है विधान मेरा तो गौरव तुम्हारे साथ जल मरने में
इतना कह भरी उसने उड़ान , गया जल राशी वन के झरनों तक
भर लाया नन्हे परो में जल , छिड़क दिया पीपल के ऊपर
नीचे धधकती अग्नि ज्वाला भयंकर अट्टाहस करती थी
करे सामना वीरो जैसे , नन्ही चिड़िया न पल भर को डरती थी
भूल गया सारी पीड़ा वो पीपल अब दो बूँद पानी से राहत पाता
जो था अचल , अडिग वो बूँद बूँद जल से कितनी आग बुझाता
तभी आसमान से मेघो का राजा , गुजर रहा था ले कर दल
थम गया देख कर ये दृश्य, रुक गए पीछे चलते बादल
देखा आज ये कैसा प्रेम अनोखा जिस से की वो अनजाना था
ऐसी हिम्मत नन्हे परिंदे की मानो मृत्यु से बेगाना था
हुआ श्वेत रंग धूमिल , पंखो को अग्नि ने झुलसाया था
देख लगन ऐसी आज स्वयं मेघराज ने आंसू बहाया था
देख कर रुदन अपने स्वामी का , मेघो का ह्रदय चीत्कार उठा
प्रभु के अश्रु गिरे धरा पे, तो होगा प्रलय आकाश ललकार उठा
सामर्थ्य हमारा ऐसा की धरती को सागर में मिला सकते है
दे स्वामी जो आज्ञा तो त्रिदेव का भी आसन डगमगा सकते है
आज ये कैसा अनर्थ विधि के रचयिता ने उपजाया है
है उसे नही जरा भी भय लगे ज्यो काल को बुलाया है
तभी मेघ दृष्टी लगी ढूँढने मेघनाथ के दुःख का Kaaran
chhaa गयी काली चादर , घिर गया वो सुरम्य अभ्यारान्य
देखा जो था हरित प्रदेश कभी उसे अग्नि ने ग्रास बनाया है
हर तरफ़ है मचा हाहाकार , मृत्यु का लाल तांडव छाया है
घने बूढ़े बरगद पुराने अब जलते तेल की मशाल के जैसे
कही मृग झुण्ड घिरा ज्वाला से सोचता हो नन्हों की रक्क्षा कैसे
चाहे हो मदमस्त हाथी या वनराज स्वयं सबको प्राण का भय
करे किस से गुहार अब , ऐसा कौन है जो दे सकता इन्हे अभय
विकराल भयंकर महाकाल की ज्वाला न तनिक दया दिखाती है
जो भी आया राह में उसे पल भर में भस्म कर जाती है
सारे नभचर उड़ चले छोड़ अपने तरुण घोसले पीछे
पर एक नन्हा सा पंछी मंडराता महाग्नी में हो निडर सभी से
कभी उड़ जाता वो झरनों तक , नन्हे पंखो में पानी भरता
चीर के रक्तिम आंधी फिर, वापस आ पीपल पर जल छिड़कता
लडखडाते उसके कदम अब और न शक्ति कुछ बची पर में
ठानी थी देने को चुनौती जिसने लगाई आग मेरे घर में
यही हिम्मत देख मेघो के स्वामी का ह्रदय विदीर्ण हुआ जाता था
न जाने इस छोटी सी जान में इतना साहस कहा से आता था
देख कर ये दृश्य कोई भी पाषण मन , मोम सा पिघल जाता
फिर ये तो है बादल जिसके ह्रदय में सिर्फ़ जल ही जल समाता
चमक उठी नेत्रों की चिंगारी न रोष अब रोका जाता था
दे दंड दुष्ट अग्नि को मन में मानो एक ववंडर सा उठता जाता था
बिजली चमकती गगन मंडल में जैसे रन प्यासी चांदी की तलवार
तीव्र गति सी उतरी धरा पे , हर दिशा में करने को घातक वार
अग्नि को अग्नि बन कर काटा , चीर दिया जो वन में फैला जाल था
क्षत विशत हो ज्वालाये, जो था शिकारी अब शिकार वाला उसका हाल था
उस दिन जगत को कुदरत ने ये गजब तमाशा दिखाया था
मेघ जो सीचे पानी से धरा उन्होंने आज दूध बरसाया था
होते युद्ध कई यहाँ पर कैसा ये अनोखा विध्वंश हुआ आज
टकरा गयी दो महान शक्तिया, अग्नि और जल में द्वन्द हुआ आज
विद्युत् करती टुकड़े प्रचंड जवाला के, दूध उसे शीतल बनाता था
कुछ ही पल में जंगल का दृश्य सारा बदला बदला नजर आता था
न टिक सकी अग्नि ज्यादा देर, मेघो ने धरा पे क्षीरसागर utaara था
आज फिर आकाश ने सुनी गुहार जब धरती ने मदद के लिए पुकारा
छंट गया था कला धुँआ अब , नभ में भी फिर सूरज चमकता था
आते मृग समूह वापिस चारागाह में नन्हे पंछी का मुख दमकता था
आ लिपटा अपने रक्षक पीपल से , खुशी के आंसू दोनों बहाते थे
देख के गगन की और सभी, करने प्रसन्न मेघो को मल्हार गाते थे
थम गए आंसू मेघराज के भी, ऐसा काम स्वमिभाक्तो ने किया
हो भरोसा ख़ुद पे तो देंगे देव साथ आज फिर ये तुमने साबित किया
हुए युगों इस बात को पर आज भी कथा उस नन्हे परिंदे की याद आती है
कभी बने गीत बंजारों के और कभी दादी माँ अपनी कहानी में सुनाती है
कभी जब न कोई राह नजर आए, saari उम्मीदे जब टूट जाए
न छोड़ना तुम साहस फ़िर भी, आस हो मन में चाहे अंत पास आए
कर्म है इन हाथो की रेखा में, कर्म कभी न रुक सकता है
देगी पूरी सृष्टि साथ उसका जो आगे बाद फिर पीछे न मुड़ता है
2 comments:
Brilliant one buddy, too gud. Frankly, made my eyes wet.
aap ko mera salaam!!! brilliant work my frnd...
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